
त्रिदोष–सृष्टि यद्यपि पाञ्चभौतिक है, किन्तु इन पाँच महाभूतों में पृथ्वी अत्यन्त गुरु एवं स्थूल होने तथा आकाश अत्यन्त लघु एवं सूक्ष्म होने से कार्यकर नहीं होते हैं। अतः शेष तीन जल, अग्नि एवं वायु ही कार्यकर होते हैं। प्रकृति में ये तीनों सूर्य, चन्द्र और वायु रूप में प्राकृतिक क्रियाओं का संचालन नियमन करते हैं। इसी प्रकार शरीर के के अन्दर इनके प्रतिनिधि वात (वायु), पित्त (सूर्य) और कफ (जल) समस्त शारीरिक क्रियाओं का संचालन करते हैं। कफ का कार्य विसर्ग अर्थात् जलीय गुणों के कारण शरीर में रस का संचार (पोषण), पित्त का कार्य आदान अर्थात् आग्नेय गुणों के कारण पाचन, रूपान्तरण तथा शोषण और वायु का कार्य विक्षेप अर्थात् गतिकर्म से शारीरिक घटकों का संचालन और नियमन करना है। वातादि दोषों का वैषम्य (विषमता-वृद्धि या क्षय) रोग तथा साम्य (समता साम्यावस्था) अरोगता (आरोग्य स्वास्थ्य) है। ‘ दूषयन्ति मनः शरीरं च इति दोषाः’। सिद्धान्तनिदान-तत्त्वदर्शिनी) अर्थात् देह एवं मन को दूषित कर देने की विशेषता रखने के कारण दोष कहा जाता है। विजयरक्षित ने कहा है- ‘ प्रकृत्यारम्भ कत्वे सति स्वातन्त्र्येण दुष्टिकर्तृत्वं दोषत्वम्’। अर्थात् दोष में प्रकृति निर्माण करने की क्षमता और स्वतन्त्रतापूर्वक शरीर को दूषित करने की प्रवृत्ति होती है।
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आयु
- आयु के पर्यायवाचक शब्द
- आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्त
- एषणाएँ
पद
- पद के भेद